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दिल्ली में कांग्रेस की करारी हार और आप की उम्मीद से बढ़कर जीत के बाद भी सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी भाजपा. लेकिन दिल्ली में जनमत का ऐसा बिखराव की किसी को भी नहीं मिल सका पूर्ण-बहुमत. पांव के नीचे से सरकती दिल्ली की जमीन पर पैर ज़माने के लिए कांग्रेस के पास ज्यादा विकल्प नहीं थे -आप को समर्थन या फिर दोबारा चुनाव. गिने चुने 8 नेताओ के पैरों तलें की जमीन टटोलने के लिए हाई-कमान ने सूक्ष्म विधायक दल की नेता चुनने के नाम पर मीटिंग बुलाई तो शूरवीरों से पता चला की अगर दोबारा चुनाव हुये तो खँडहर भी नहीं बचेंगे. आनन्-फानन में ‘आप’ को समर्थन की घोषणा कर के कांग्रेस को एक तीर से तीन शिकार का सुख मिला. भाजपा की विधानसभा के बाहर घेराबंदी, जनता पर एहसान के नाम पर आप को समर्थन और बचे खुचे वीरों के साथ खँडहर हो चुकी सियासी इज्जत बचा ली गई.
लेकिन आजकल के बच्चों की तरह जल्द सायानी हुई ‘आप’ ने आखिरी फैसला जनता पर डाल दिया. सीता-दहन से लेकर चीर-हरण तक देखने वाली जनता को राजनीति के इस नए खेल में मज़ा आने लगा था. आये क्यों न जिसे सालों दुत्कारा गया किसी ने पुचकार कर पास बिठाया भी तो इस्तेमाल कर के चुनावी पोस्टर की तरह लटकता छोड़ दिया. उसे अरविन्द केजरीवाल से उम्मीद थी की वो जनता के लिए घोड़ी क्या सूली भी चढ़ जायेंगे सो फ़िलहाल जनता ने गद्दी चढ़ने का आदेश सुनाया. लेकिन खुद को सनकी सेनानियों की पार्टी कहने वाली ‘आप’ में इस बिना मांगे समर्थन से चिढ बढ़ रही थी. जल्द ही उहापोह से बहार निकल कर पार्टी ने असर की परवाह किये बिना ‘कांग्रेस की स्तुति’ या ‘समर्थन में चुप्पी’ दोनों से इंकार कर दिया. 6 महीने बाद या 6 हफ्ते बाद चुनाव को निश्चित मानकर अरविन्द ने अपने आजमाए हुए ‘कांग्रेस भाजपा चोर है और ‘आप’ सिपाही साफ सिपाही’ का नारा बुलंद करना शुरू कर दिया और दूसरी ओर सरकार बनाने का निमंत्रण स्वीकार कर लिया जैसे हारे हुए राजा के तोहफे की कोई कीमत नहीं होती.
अब कांग्रेस के गले में वो हड्डी फंस गई थी जिस मुर्गी की टांग वो खा भी न सके और चुनावों में उसकी लात भी खूब पड़ी थी. सुक्ष्म विधायक दल की नेता और चुनावों में ताई का नाम कमा चुकी शीला दीक्षित ने समर्थन को बिना शर्त से सशर्त बना दिया लेकिन जनता के नकारने का अपमान सहने वाले शूरवीरों में ‘आप’ के ताने सुनकर सरफरोशी की तमन्ना जग गई और कहना शुरू कर दिया की आप पर जिस दबाव को बनाने के लिए समर्थन दिया था वो तो उल्टा कांग्रेस पर बन रहा है और जिस इज्जत के लिए समर्थन दिया था वो तो रोज़ तार-तार हो रही है इस से बेहतर था दोबारा चुनाव लड़कर जीत न सकें तो हार जाना. इतने में अरविन्द केजरीवाल का नया प्रचार की बनने वाली सरकार ‘अल्पमत’ की है न की कांग्रेस समर्थन की हवा में आया तो लगा की अँधेरे में खड़ी भाजपा के हाथ में जैसे मशाल लग गई हो जिसकी रोशनी में वो कांग्रेस और अरविन्द का कोई असली चेहरा दिखाना चाहते हो. इस देखा-दिखाई में कहीं छुपन-छुपाई का खेल भी चल रहा था जिसमे मंझे हुए राजनीतिज्ञों को अरविन्द केजरीवाल पहले ही विधानसभा-चुनाव का क्रैश-कोर्स करा चुके थे अब शिष्टाचारवश कांग्रेस और भाजपा उनका राजनितिक स्क्रीन टेस्ट लेने पर तुली हुई है.
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इस रचना का किसी भी जीवित अथवा मृत व्यक्ति से कोई सम्बन्ध नहीं है। नाम, स्थान, भाव-भंगिमा अथवा चारित्रिक समानताये एक संयोग भर है। राजनैतिक और हास्य व्ययंग का उद्देश्य मनोरंजन और विनोद है। किसी भी राजनैतिक दल, समूह, जाति, व्यक्ति अथवा वर्ग का उपहास करना नहीं। यदि इस लेख से किसी की धार्मिक, सामाजिक, राजनैतिक या व्यक्तिगत भावनाओ को ठेस पहुँचती है तो लेखक को इस गैर-इरादतन नुकसान का अफ़सोस है।
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